गम तुम्हारा हम तुम्हारे. तुम्हारी ही हर बात क्यों.
हमारे ही मुकद्दर में हिज्र की ये रात क्यों.
एक जमाना वो भी था, चाँद मिलता था थाल में.
चल पड़ी कैसी हवाएं,अमावास सी हर रात क्यों.
भूल जाना ही मुनासिब है, शायद तुझे ऐ जिंदगी.
फैसला तो कर लूँ कुछ, पर बिखरे हैं ख़यालात क्यों.
हमारे ही मुकद्दर में हिज्र की ये रात क्यों.
एक जमाना वो भी था, चाँद मिलता था थाल में.
चल पड़ी कैसी हवाएं,अमावास सी हर रात क्यों.
भूल जाना ही मुनासिब है, शायद तुझे ऐ जिंदगी.
फैसला तो कर लूँ कुछ, पर बिखरे हैं ख़यालात क्यों.
दिल की कशिश को बखूबी उकेरा है आपने ..............
ReplyDeleteभूल जाना ही मुनासिब है, शायद तुझे ऐ जिंदगी.
ReplyDeleteफैसला तो कर लूँ कुछ, पर बिखरे हैं ख़यालात क्यों.
क्या बात है ... मेरे ब्लॉग पर भी स्वागत है
एक जमाना वो भी था, चाँद मिलता था थाल में.
ReplyDeleteचल पड़ी कैसी हवाएं,अमावास सी हर रात क्यों.
वाह👌
ReplyDeleteWow👌
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